ठण्ड की सुबह कुछ अलसायी सी थी। रुई की उस गरम रजाई से निकलने का मन बिलकुल नहीं था, तभी अचानक से एक आवाज़ आयी, ” दीदी ! उठ जाओ सुबह हो गयी है । ऑन्टी जी बाहर बुला रहीं हैं !” हमारी नौकरानी रेखा दीदी ने कमरे की खिड़की खोलते हुए कहा ।
रजाई की गर्माहट से मुँह निकलने में ही कँपकपी आ रही थी और यहाँ तो खुद को ही पूरा निकलना था। बेड के सिरहाने रखी हुई मेज़ पर आराम करते हुए फ़ोन को, रजाई में से एक हाथ बहार निकाल कर उठाया और उस पर अंकित समय देखते ही सारी ठण्ड हवा हो गयी।
“हे राम ! आज तो क्लास के लिए देर हो गयी ” बोलते हुए मैं सीधे बाथरूम में घुस गयी।
कमरे से तैयार होकर बाहर आयी तो नासिका नामक इंद्री की भेंट गरम गरम आलू पूरी और गाजर के हलवे की भीनी भीनी सुगंध से हो।
“पहले पूजा करके आओ मंदिर में, उसके बाद नाश्ता मिलेगा”, उस कड़क आवाज़ को सुनते ही रसोईघर की तरफ बड़े हुए कदम वहीँ रुक गए । पलट कर देखा तो वहां कोई नहीं था । यह देखने के लिए की वह कड़क आवाज़ कहाँ से आयी, मेरे कदम स्वतः ही बैठक की तरफ बढ़ गए । कमरे में खिड़कियाँ और दरवाज़े खुले हुए थे, सुबह की ताज़ी हवा के लिए। बाहर कोहरा छंटने लगा था और उस कोहरे में से सूर्य की किरणे खिड़कियों से अंदर यूँ बेधड़क अंदर आ रही थीं मानो कह रही हों हमें ठण्ड, कोहरा, या बरसात, कोई नहीं रोक सकता अपना कर्म करने से।
“तुम अभी तक यहीं खड़ी हो? पूजा करके आओ जल्दी से।” फिर से वही कड़क आवाज़ से मेरी तरिंद्रा भांग हुई और मैं सूर्ये की किरणों से अपने वार्तालाप को छोड़कर वापिस असली दुनिया में आ गयी। देखती हूँ की मेरी प्यारी माँ जो उस कड़क आवाज़ ही नहीं वरन एक कड़क व्यक्तित्व की भी मालकिन है, अपनी रौबदार नाक पर पास की नज़र का चश्मा लगाए बैठी है और समाचार पत्र अर्थात अखबार का आनंद ले रही हैं ।
अखबार के पन्ने से बिना नज़रों को उठाये उनकी आवाज़ फिर गूंजी, “अपना तौलिया भी बाहर छत पर सूखा देना, पता नहीं कब सुधरेगी, दस बार कहा है की गिला तौलिया बिस्तर पर मत छोड़ा करो ।” माँ की डांट और न खानी पड़े इसीलिये वहां से खिसकने में ही भलाई समझी और बिस्तर पर से तौलिया उठा कर छत की ओर प्रस्थान किया।
अंतिम सीढी पर पैर रखते ही नासिका नमक इंद्री फिर से मचल उठी, इस बार उसकी भेंट चन्दन, मोगरा की धूप और अगरबत्ती की सुगंध से जो हुई थी। हमारे घर के मुखिया यानि की मेरे पूज्ये पिताजी का स्वर मध्यम सुर में आरती कर रहा था और बीच बीच में शंख की मधुर ध्वनि भी आ रही थी। मंदिर की घंटी सारे वातावरण को एक अनोखी दिव्यता प्रदान कर रही थी।
जानती हूँ की थोड़ी सी दिव्यता अधिक हो गयी और साथ ही में आप सबकी उलझन भी। दरअसल हमारे यहाँ गंगा मईया थोड़ी सी उल्टी बहती हैं। शुरू से हमारे पिताजी को पहले शिशु के रूप में एक पुत्री चाहिए थी लेकिन हो गया पुत्र। पुत्री भी हुई वरना मैं आप सब से बात कैसे करती, हाँ तो पुत्री भी हुई लेकिन कुछ सालों के अंतराल पर। सुना है की पिताजी नास्तिक प्रवर्ति के इंसान थे लेकिन एक पुत्री की इच्छा ने उन्हें भगवान् के चढ़नोँ में बैठने पर मजबूर कर दिया, तभी से हमारे यहाँ गंगा मईया ने अपना एक निवास स्थान हमारे घर के मंदिर के जल के लोटे में भी बना लिया। वैसे तो पिताजी हमारे घर के मुखिया हैं और सारे बड़े बड़े निर्णय वही लेते हैं लेकिन उन् निर्णयों पर अंतिम मोहर गृहमंत्रालय से लगती है यानि की हमारी माता जी। पिताजी ने घर भी एकदम आलिशान कोठी बनाई और नाम दिया “वीणा कुटी”, मेरी माताजी के नाम पर।
वैसे यथा नाम तथा गुण की कहावत मेरी माँ पर सटीक बैठती है। संगीत और इतिहास में एम. ऐ., नृत्य और पाक कला में निपुण, सृजनात्मक एवं रचनात्मक सोच से परिपूर्ण रही हैं माताजी और यही गुण उन्होंने हमारे अंदर डालने की कोशिश भी की है। अब वह कितनी सफल या असफल हुई हैं यह तो समय ही बताएगा। पुस्तकों यानि की किताबों से मेरी माँ को एक विशेष प्रकार का स्नेह रहा है , वही स्नेह मुझे भी धरोहर के रूप में मिला है।
चलिए आपको वापिस छत से नीचे भोजन कक्ष अर्थात डाइनिंग रूम की ओर लिये चलते हैं। वैसे उस गरम गरम आलू पूरी और गाजर के हलवे की सुगंध को आप लोग भूले तो नहीं होंगे। भूलियेगा भी मत क्यूंकि इसी वजह से पूजा मैंने शॉर्टकट में करी है।
नीचे आते हुए अंतिम सीडी पर ही नासिका इंद्री की भेंट उसी चित-परिचित सुगंध से हुई और मेरे कदम स्वतः ही भोजन कक्ष की तरफ बढ़ गए। देखा तो मेज़ पर प्लेट में आलू-पूरी और हलवा सजा हुआ था।
“कल से पूजा ढंग से करना वरना नाश्ता नहीं मिलेगा। ” फिर वही कड़क लेकिन एक अलग सी मिठास लिए हुए माँ का स्वर कानो में गूंजा। देखा तो अभी भी वह अखबार पढ़ रही थीं।
“पता नहीं कहाँ से इनको सारी खबर कहाँ से मिल जाती है जैसे सब जगह इन्होने कैमरे लगा रखे हैं। ” मन ही मन मैंने पूरी और आलू का निवाला बनाते हुए सोचा। “यही समझ लो, भगवान् ने माँ को दस आंखों के साथ भेजा है।,” हँसते हुए माँ ने दूध का ग्लास मेज़ पर रख दिया।
“दीदी! पूरियां सेंक दूँ?” रेखा दीदी की आवाज़ ने मुझे मेरे ख्यालों से वापिस ला दिया। “रुको ! मैं सेंकती हूँ, आप मेज़ पर प्लेट लगा दो । पंडितजी पूजा के लिए आते ही होंगे।” मैंने साड़ी का पल्लू कमर में खोंसते हुए कहा।
“आप बिलकुल आंटी जी जैसे खाना बनाते हो दीदी। वही खुशबू आ रही है। ” कहते कहते रेखा की आँखें नम हो गयीं। “अरे कहाँ! एक भी पूरी नहीं फूली ना, तो आपकी ऑन्टी स्वर्ग से डांट लगाने नीचे आजाएंगी। “मैंने हँसते हुए कहा और अपनी आँख में आये एक आंसूं को अपनी ही आँखों में चुप्पा लिया।
पूरियां लेकर बाहर आयी तो देखा की कोहरा छंट रहा है और सूर्य की किरणे अंदर आ रही हैं। उनको गाये आज सत्रह दिन हो गए हैं लेकिन ऐसा लगा जैसे वो अब भी वहीँ बैठी हैं, अपनी रोबदार नाक पर पास की नज़र का चश्मा लगाए लेकिन इस बार नज़रें अखबार पर नहीं मुझ पर थीं , जैसे कह रही हों, “तू सच में मेरे जैसा खाना बनाना सीख गयी। “
मेरी आँख के कोर में छुप्पा हुआ वह आँसूं , दबे कदमों से चलता हुआ आया और धीरे से नीचे दुलक गया।
– जी. एस. निधी